Q1: भारत के राष्ट्रपति की वीटो शक्तियों पर प्रकाश डालिए। राज्यपाल की वीटो शक्तियां राष्ट्रपति की शक्तियों से किस प्रकार भिन्न हैं?
Highlight the veto powers of the President of India. How does the veto powers of the Governor differ from that of the President? (8 Marks)
दृष्टिकोण:
उत्तर:
वीटो शक्ति विधायिका के किसी भी कार्य को अधिरोहण (override) करने की कार्यपालिका की शक्ति को संदर्भित करती है। यह विशिष्ट विशेषाधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 111 के अनुसार संसद द्वारा पारित सभी विधेयक केवल तभी एक अधिनियम बन सकते हैं जब राष्ट्रपति द्वारा उन्हें स्वीकृति प्रदान कर दी जाती है। इस प्रकार, किसी:विधेयक पर अपनी स्वीकृति को सुरक्षित रखने के माध्यम से राष्ट्रपति वीटो शक्ति का प्रयोग करता है।
भारत के राष्ट्रपति को निम्न प्रकार की वीटो शक्तियां प्राप्त हैं:
अत्यांतिक वीटो: यह विधांयिका द्वारा पारित विधेयक पर अपत्नी स्वीकृति सुरक्षित रखने को संदर्भित करता है। राष्ट्रपति द्वारा इसका उपयोग 1954 में PEPSU विनियोग विधेयक और 1991 में संसद के सदस्यों का वेतन, भत्ता और पेंशन (संशोधन) अधिनियम के मामले में किया गया था।
निलम्बनकारी वीटोः विधायिका द्वारा इस वीटो को»एक साधारण बहुमत से निरस्त किया जा सकता है। भारत के राष्ट्रपति द्वारा 2006 में लाभ का पद संबंधी विधेयक के मामले में इसका उपयोग किया गया था।
पॉकेट वीटो: यह राष्ट्रपति को विधायिका.द्वोरा पारित विधेयक पर कोई कार्रवाई नहीं करने का अधिकार प्रदान करता है। भारत के राष्ट्रपति ने 1986 में भारतीय डाकघर (संशोधन) विधेयक के सन्दर्भ में इस वीटो का उपयोग किया था।
साधारण विधेयक के संबंध राष्ट्रपति को सभी तीन वीटो शक्तियां प्राप्त हैं, किन्तु धन विधेयक के सन्दर्भ में उसे केवल अत्यांतिक वीटो की शक्ति प्रोप्त है। राष्ट्रपति एक धन विधेयक को संसद के पुनर्विचार हेतु नहीं लौटा सकता है।
राज्यपाल को राज्य विधेयकों (साधारण और धन विधेयक) के संबंध में राज्य स्तर पर राष्ट्रपति के समान शक्तियां प्राप्त हैं। हालाँकि, दोनों ही मामलों में राज्यपाल को विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखने की अतिरिक्त वीटो शक्ति प्राप्त होती है। जब कोई विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखा जाता है तो राष्ट्रपति के पास निम्नलिखित विकल्प होते हैं:
राज्य के साधारण विधेयक के संबंध में: राष्ट्रपति या तो विधेयक को अपनी स्वीकृति दे सकता है या अपने अत्यांतिक या निलम्बनकारी या पॉकेट वीटो का उपयोग कर सकता है। यदि निलम्बनकारी वीटो के सन्दर्भ में संबंधित राज्य विधानमंडल द्वारा पुनर्विचार के बाद विधेयक पारित कर दिया जाता है, तब राष्ट्रपति विधेयक को अपनी स्वीकृति दे सकता है या इस पर अपनी स्वीकृति रोक सकता है। विधेयक को अधिनियमित करने में राज्यपाल की कोई भूमिका नहीं होती है।
राज्य के धन विधेयक के संबंध में: राष्ट्रपति या तो विधेयक को अपनी स्वीकृति दे सकता है या अपने अत्यांतिक वीटो का उपयोग कर सकता है। इस प्रकार राष्ट्रपति धन विधेयक को राज्य विधानमंडल को पुनर्विचार हेतु नहीं भेज सकता है (जैसा कि संसद के मामले में है)।
Q2. राज्यों में विधान परिषदें खर्चीली और अनावश्यक विधायी उपांग हैं। इस संदर्भ में विधान परिषदों की उपयोगिता का परीक्षण कीजिए, साथ ही उन्हें स्थापित करने और समाप्त करने के प्रक्रियात्मक पहलू पर टिप्पणी कीजिए ?
Legislative Councils in states are expensive and otherwise superfluous legislative appendages. Examine the utility of legislative councils in this context. Also, comment on the procedural aspect of setting up and abolishing them. (12 Marks)
दृष्टिकोण:
· विधान परिषदों का संक्षिप्त परिचय देते हुए इनके महत्व और इनके सृजन एवं उत्सादन के संबंध में राज्यों द्वारा की गई तदर्थ मांग की व्याख्या कीजिए।
· विधान परिषदों के पक्ष और विपक्ष में तर्क प्रदान कीजिए।
· अंत में, हाल की घटनाओं के प्रकाश में विधान परिषदों के सृजन एवं उत्सादन के प्रक्रियात्मक पहलुओं पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
अनुच्छेद 169 राज्य विधान परिषद के सृजन और उत्सादन की प्रक्रिया निर्धारित करता है। विधान परिषदें केंद्र में राज्यसभा की भांति राज्यों में ऊपरी सदन की उद्देश्य पूर्ति करती हैं, लेकिन इनके पास बहुत कम शक्ति होती है। वर्तमान में सात राज्यों में विधान परिषदे हैं।
राज्य स्तर पर द्विसदनीय विधायिका की वांछनीयता पर संविधान सभा के दिनों से बहस चल रही है और हाल के घटनाक्रमों ने इस बहस को पुनर्जीवित कर दिया है।
विधान परिषदों के विपक्ष में तर्क:
· अनावश्यक विधायी उपांग: यदि ऊपरी सदन में सदस्यों का बहुमत, निचले सदन में बहुमत रखने वाले समान दल से ही है तो ऊपरी सदन केवल डिट्टो चैम्बर बनकर रह जाता है।
· प्रभावी नियंत्रण का न होना: विधान परिषदों की शक्तियां इस सीमा तक सीमित हैं कि ये शायद ही विधानसभाओं पर कोई प्रभावी नियंत्रण आरोपित कर सकती हैं। यह केवल चार महीने तक विधेयक को लंबित रख सकती है।
· पराजित सदस्यों के सदन में प्रवेश का पिछला दरवाजा: आलोचकों ने आशंका प्रकट की है कि विधान परिषदों का किसी दल द्वारा ऐसे कलंकित सदस्यों को समायोजित करने हेतु उपयोग किया जा सकता है जो विधानसभाओं में वापस नहीं आ सकते हैं।
· व्यय साध्य संस्थाः राज्यों में द्विसदनवाद महंगा प्रयोग है और राज्य के खजाने पर बड़ा बोझ है ।
· विषम सदनः प्रत्यक्ष चुनाव, अप्रत्यक्ष चुनाव और नामांकन का सम्मिश्रण परिषदों को प्रतिनिधित्व का गोलमाल बना देता है। इतनी भिन्नतापूर्वक गठित सदन न तो संशोधक सदन के उद्देश्य की पूर्ति करता है और न ही द्रुत विधायन के विरुद्ध प्रभावी रोक के रूप में कार्य करता है ।
हालांकि, यह भी तर्क दिया जाता है कि विधान परिषदें द्रुत विधायन और निचले सदन की निरंकुश प्रवृत्ति पर रोक लगाने का कार्य कर सकती हैं और उन प्रतिभाशाली व्यक्तियों को समायोजित कर सकती हैं जो विधानसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं।
प्रक्रियात्मक पहलू:
· वर्तमान में विधान परिषदों का सृजन और उत्सादन राज्य विधानसभा और संघीय संसद की मर्जी पर निर्भर है। राज विधानसभाएं परिषदों के सृजन और उत्सादन का प्रस्ताव पारित कर सकती हैं और संघीय संसद इसके लिए कानून बना सकती है।
· इस संदर्भ में, विधान परिषद के सृजन के संबंध में राजस्थान और असम के विधेयकों का परीक्षण करने वाली संसदीय समिति ने सुझाव दिया है कि स्थायी द्वितीय सदन पर राष्ट्रीय नीति होनी चाहिए ताकि बाद की सरकारें अपनी इच्छा से इसका उत्सादन न कर सकें।
· अस्थाई रूप (तदर्थवाद) पर निर्भर रहने की बजाय इस मुद्दे के समाधान हेतु यह श्रेष्ठ उपाय है। इस प्रकार की नीति तैयार करते समय यह भी निर्णय किया जाना चाहिए कि द्वितीय सदन का सृजन करने में लगने वाला समय और संसाधन वास्तव में व्यय योग्य है या नहीं।
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